आज मै एक महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने जा रहा हू जो काफी उपयोगी है, जो प्राचीन पुस्तक से आया है ।
(१) प्रकृति अपने आप जड़सत्ता है और वह इस अकल्पित विस्तार का आधार है ,स्वरुप है अभिव्यक्ति है !जितना विस्तार इस जरता का है उसके साथ चेतन अभिन्न रूप से जुरा हुआ है क्योकि उनके बिना प्रकृति का कोई अस्तित्व नही। पृथ्बी का या ब्रह्माण्ड का मूल उदगम ढूँढते हुए हम भारतीय जड़ और चेतन सत्ता तक जा पहुँचे है। सृष्टि के साथ जूड़े प्रलय तक को हम जान चुके है और इस आदि एवं अंत के सूत्र को थामे रहने वाली गति को भी हम समझ-परख चुके है जिसके कारन यह संसार पल-पल रूप बदलता रहता है।
विज्ञान की एक शाखा—भौतिक शाखा
(२)भारतीय मान्यता के इतने करीब आ पहुचीँ है और विश्व की उत्तपत्ति के दो सिद्धांत में से अधिक विश्वासनीय एक सिद्धांत को मान्यता प्रदान कर चुकी है।
एस सिद्धांत का विश्लेषण शांख्य दर्शन के महत्वा और अव्यक्त सत्ता वाले सिद्धांत का भी भौतिकशास्त्रीय भाष्य है । प्रलय नाम की स्थिति को वे भी समझ चुके है पर उनकी दृष्टि में प्रलय विश्लेषण से नहीं संश्लेषण से होगी अर्थात भौतिक शास्त्रकी मान्यता के अनुसार ब्रह्माण्ड में प्रत्येक तत्वा के एसे प्रतितत्व विद्यमान है जो इस संसार के तत्वों से संयोग करते ही स्वयं भी नष्ट हो जायेंगे और इस दृश्य विस्तार को भी नाम शेष देंगे।
येही मत यह मानता है की विश्वा का जन्म प्रसार से नही (जैसा एक एक पक्ष मानता है)एक शून्य से हुआ है और शून्य जो सांख्य दर्शन का अव्यक्त है अथवा बौद्धो के सृष्टि के आदि से पूर्व एक अंत के पश्चात की स्थिति ^शून्य^ है उसी महतत्त्वा उत्पन्न होता है ।
इस महत् को यदि भौतिकशास्त्र एक विशाल पिंड कह लेता है तो इसमें क्या आपत्ति होगी ? लाल किताब की मान्यता है की देर-अबेर विज्ञान को वहाँ आना परेगा जहाँ कणाद,कपिल,गौतम, भृगु, लगध आ चुके थे ।
भारतीय पुरानों और दर्शनों में जो कुछ बतलाया जा चूका है उनके शब्दों ,शैली और आख्यानों के रहस्य का उद्दधाटन करके वैज्ञानिक उसी ठोस पदार्थ पर पहुँचेगा जहाँ हमारे ऋषि पहुचँ चुके थे ।
भारत का समस्त संस्कृत वाड्मय
(३) भारत का समस्त संस्कृत वाड्मय इस अनंत विस्तार को और विस्तार के इतिहास को बड़ी सूक्ष्म एवं सतर्क दृष्टि से देखने का उपक्रम है।
वैष्णवों की ब्रह्मोपासना और शाक्तों की मायोपासना मे कोई अंतर है ही नहीं, यदि अंतर दिखता भी है तो तथ्यों का अंतर है सत्य का नहीं ।
कोई व्यक्ति किसी पेड़ के पत्तों को ही जनता है उसे जड़ के रूप, गुण और क्रिया एवं स्थिति का ज्ञान नहीं रहता तो किसी को केवल फूलो का ही ज्ञान है फलो का नहीं और वे सब अपने- अपने तथ्यों का विवेचन करने लग जाये तो उनके विवेचन सही भी होंगे और एक-दूसरे से भिन्न भी परन्तु पूर्ण नहीं, क्योंकि वे सत्य होकर भी खंड बोध है इसलिए वे तथ्य है, सत्य नहीं ।
सत्य समग्र होता है, शाश्वत होता है।
तत्व चिकित्सा पर विचार
(४)इस प्रकरण मे हम तत्व चिकित्सा पर विचार करेंगे और यह तत्व चिकित्सा ठीक वही स्थिति है जो किसी वृक्ष के फल की स्थिति होती है एक बीज को फल के रूप मे परिणत होने के पहले जड़, तना, वल्कल, पत्ते, फूल इन सारी अवस्थाओं मे से गुजरना परता है इसलिए उसमे ये सारी अवस्थाएं बीज रूप मे निहित रहती है और इसलिए वह बीज कहलाता है तत्त्वों के रूप मे जो प्रकृति पाँचो आयामों के स्थूलतम रूप को धारण करती है वही परा प्रकृति विकृतियों से मिलती-मिलती अनेक स्तरों पर विभाजित होती हुई तत्त्वों मे पर्यवसित होती हैl इन तत्त्वों मे किसी कारण से होने वाले व्यतिक्रम अथवा असन्तुलन को हम शारीरिक व्याधि या मानसिक व्याधि जे रूप मे जानते है । इस असन्तुलन को संतुलित करना ही चिकित्सा कहलाता है । मानव-शरीर या व्यक्ति प्रकृति स्वयं स्वस्थ रहना ही चाहती है, अस्वस्थता मे वह अस्वाभाविक स्थिति प्राप्त कर लेती है, इसलिए व्यक्ति स्वस्थ रहना ही चाहता है अस्वस्थ नहीं ।
चिकित्सा करने के लिए प्रचलित विधि आयुर्वेद
(५) चिकित्सा करने के लिए प्रचलित विधि आयुर्वेद है और आयुर्वेद का निदान या निघण्टु तत्त्वों के व्यक्तिक्रम को सुधारने के लिए एक सिद्धांत अपनाता है । तत्वों की व्यवस्था बिगड़ जाने से दोष उत्पन्न हो जाता है इसलिए आयुर्वेद पाँच तत्त्वों की सूक्ष्म अवस्था गुणों के विपरीतभाव-दोषों को माध्यम बनाता है । इस तथ्य का विस्तृत विवेचना अनावश्यक रहेगा की तत्व प्रकृति का सूक्ष्म स्तर ही गुणात्मक प्रकृति कहलाता है और गुणात्मक की विलोम स्थिति दोषात्मक हो जाती है ।
(६) बहुत संभव है की आयुर्वेद के मर्मज्ञदोषों की समस्थिति को स्वस्थाता की परिभाषा उनकी विषम स्थिति को अनुसंधान करते हुए तत्त्वों की व्यवस्था-व्यक्तिक्रम तक पहुंचते हो, किन्तु औषधियों का गुण-वीर्य बतलाने वाले ऋषि से तत्त्वों की अनुपातिक व्यवस्था उनके उपचय तक निश्चित रूप से पहुंच गये थे ।
आयुर्वेद की दृष्टिकोण से ( कफ-वात, पित्त-कफ, पित्त-वात आदि )
(७) जिस तरह आयुर्वेद की दृष्टि से अधिकांश व्यक्ति मिश्र प्रकृति ( कफ-वात, पित्त-कफ, पित्त-वात आदि ) के हुआ करते है । बहुत कम व्यक्ति एक प्रकृति के होते है, इसके बावजूद भी दोषों की संचय, सुप्त और बृद्धि का क्रम रहा करता है, उसी तरह तत्त्व बोध की दृष्टि से अधिकांश व्यक्ति मिश्र तत्त्वों की प्रकृति के ही होते है, फिर भी एक तत्त्व की प्रधानता वाले व्यक्ति भी होते है किन्तु वे भी तत्त्वों प्रखरता व मंदता के क्रम से प्रभावित होते है । दिन-रात मे अनेको बार तत्त्वों का यह क्रम व्यवस्थित रूप से निश्चित समय के अंतर से बदलता रहता है जहाँ इस क्रम मे अंतर आया वही व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है और यह अस्वस्था तन की ही नहीं मन की भी हो सकती है ।
(८) जो व्यक्ति नित्य सुखी या सर्वदा प्रसन्न रहता है या नित्य दुःखी या या सदा रहते है उनमे किसी किसी एक तत्त्व की और तत्त्व के अनुसार गुण की प्रमुखता रहती है। प्रकृति के क्रम के अनुसार उनको भी सुखी या दुःखी होना चाहिये, किन्तु तत्त्वों की सूक्ष्म अवस्था गुणों का परिवर्तन उनमे भी होता रहता है किन्तु वे लोग अपने अभ्यास या ग्रह स्थिति या किसी एक तत्त्व की अत्यंत परखता के कारण उस परिवर्तन से प्रभावित नहीं हो पाते। कई बार हम अचानक उदास, क्लांत और म्लान हो जाते है, हमारी इङस स्थिति का कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं दिखाई देता। इसका कारण तत्वों या गुणों कि चक्रगति है