यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु:
हंसा महीमण्डलमण्डनाय
हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां
येषां मरालैस्सह विप्रयोग:।।
हंस, जहां कहीं भी धरती की शोभा बढ़ाने गए हों, नुकसान तो उन सरोवरों का ही है, जिनका ऐसे सुंदर राजहंसों से वियोग है।।
अर्थात् अच्छे लोग कहीं भी चले जाएं, वहीं जाकर शोभा बढ़ाते हैं, लेकिन हानि तो उनकी होती है , जिन लोगों को छोड़कर वह जाते हैं ।
*छायाम् अन्यस्य कुर्वन्ति*
*तिष्ठन्ति स्वयमातपे।*
*फलान्यपि परार्थाय*
*वृक्षाः सत्पुरुषा इव।।*
अर्थात- पेड को देखिये दूसरों के लिये छाँव देकर खुद गरमी में तप रहे हैं। फल भी सारे संसार को दे देते हैं। इन वृक्षों के समान ही सज्जन पुरुष के चरित्र होते हैं।
*ज्यैष्ठत्वं जन्मना नैव*
*गुणै: ज्यैष्ठत्वमुच्यते।*
*गुणात् गुरुत्वमायाति*
*दुग्धं दधि घृतं क्रमात्।।*
अर्थात- व्यक्ति जन्म से बडा व महान नहीं होता है। बडप्पन व महानता व्यक्ति के गुणों से निर्धारित होती है, यह वैसे ही बढती है जैसे दूध से दही व दही से घी श्रेष्ठत्व को धारण करता है।
*अर्थार्थी यानि कष्टानि*
*सहते कृपणो जनः।*
*तान्येव यदि धर्मार्थी*
*न भूयः क्लेशभाजनम्।।*
अर्थात- धन कमाने में प्रवृत्त एक कंजूस व्यक्ति को जिस प्रकार कष्ट सहने पडते हैं यदि वैसे ही कष्ट सहन कर वह धर्म का पालन करने में प्रवृत्त हो तो उसे अपने जीवन में कभी भी क्लेश नहीं होगा।
*यावद्वित्तोपार्जनसक्तः*
*तावन्निजपरिवारो रक्तः।*
*पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे*
*वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे॥*
अर्थात- जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उससे सामान्य बातचीत में भी कुछ नहीं पूछा जाता है। अतः जीवन अनमोल है भगवान में आसक्त होकर गोविन्द को भजना श्रेयस्कर होता है।
*यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।*
*वासो यथा रङ्गवशं प्रयाति तथा स तेषां वशमभ्युपैति।।*
अर्थात- कपड़े को जिस रंग में रँगा जाए, उस पर वैसा ही रंग चढ़ जाता है, इसी प्रकार सज्जन के साथ रहने पर सज्जनता, चोर के साथ रहने पर चोरी तथा तपस्वी के साथ रहने पर तपश्चर्या का रंग चढ़ जाता है।
*न ब कश्चित् विजानाति*
*किं कस्य श्वो भविष्यति।*
*अतः श्वः करणीयानि*
*कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥*
अर्थात- कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता है, इसलिए कल के करने योग्य कार्य को आज कर लेने वाला ही बुद्धिमान है।
*अयं निजः, परो वेत्ति*
*गणना लघुचेतसाम्।*
*उदारचरितानां तु*
*वसुधैव कुटुम्बकम्।।*
अर्थात- यह मेरा है, यह दूसरा है, यह विचार तो छोटे लोगो को ही होता है। बड़े लोगो का तो संसार ही अपना कुटुंब है।
*षड् दोषाः पुरुषेणेह*
*हातव्या भूतिमिच्छता।*
*निद्रा-तन्द्रा-भयं-क्रोधं,*
*आलस्यं दीर्घसूत्रता।।*
अर्थात- निद्रा, तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य, दीर्घसूत्रता (थोड़े समय में होने वाले काम को बहुत देर में करना) इन सब दोषों को अपनी उन्नति चाहनेवाले पुरुषों को छोड़ देना चाहिये।
*धर्मज्ञो धर्मकर्ता च*
*सदा धर्मपरायणः।*
*तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्था-*
*देशको गुरुरुच्यते॥*
अर्थात- धर्म को जाननेवाले, धर्म के अनुसार आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं।
*बालोऽपि नाऽवमन्तव्यो*
*मनुष्य इति भूमिपः।*
*महती देवता ह्येषा*
*नररूपेण तिष्ठति।।*
अर्थात- एक राजा की बात तो दूर एक बालक का भी अनादर नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये मनुष्य के रूप में महान देवता ही इस पृथ्वी पर हैं, अतः प्रत्येक जीव मात्र का आदर करना चाहिए।
*आप्तद्वेषाद्भवेन्मृत्युः*
*परद्वेषाद्धनक्षयः।*
*राजद्वेषाद्भवेन्नाशो*
*ब्रह्मद्वेषात्कुलक्षयः।।*
अर्थात- आप्तपुरुष (ऋषि या ऋषि सदृश) पुरुष से द्वेष करने पर मृत्यु संभव होती है, दूसरों से द्वेष करने पर धन-दौलत नष्ट हो जाती है, राजा से द्वेष करने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है और ब्राह्मण से द्वेष करने पर पूरे कुल (वंश) का धीरे-धीरे नाश हो जाता है।
*आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन्*
*को न जीवति मानवः।*
*परं परोपकारार्थं*
*यो जीवति स जीवति॥*
अर्थात- इस जीवलोक में स्वयं के लिए कौन नहीं जीता? परंतु, जो परोपकार के लिए जीता है, उसी को सच्चा जीना कहते हैं।
*क्षमा शस्त्रं करे यस्य*
*दुर्जनः किं करिष्यति।*
*अतृणे पतितो वह्निः*
*स्वयमेवोपशाम्यति॥*
अर्थात- जिसके हाथ में क्षमारूपी शस्त्र है उसका दुर्जन क्या बिगाड़ सकेगा? घासरहित स्थल पर गिरा हुआ अग्नि स्वयं ही शांत हो जाता है।
*आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं*
*रात्रौ तदर्द्धं गतं*
*तस्यार्धस्य परस्य चार्धमपरं*
*बालत्ववृद्धत्वयो:|*
*शेषं व्याधिवियोगदुःखसहितं*
*सेवादिभिर्नीयते*
*जीवे वारितरङ्गचञ्चलतरे*
*सौख्यं कुतः प्राणिनाम्||*
अर्थात- मनुष्य की आयु एक सौ वर्ष तक ही सीमित रहती है और उसका आधा भाग रात्रि के रूप में (नीद लेने में) व्यतीत हो जाता है। बचे हुए आधे भाग का आधा- बचपन और वृद्धावस्था में व्यतीत हो जाते हैं और बाकी बचे हुए वर्ष बीमारियों, वियोग, दुःख तथा सेवा आदि में व्यतीत हो जाते हैं। यह जीवन - जल में उठी हुई तरंगों के समान अत्यन्त चञ्चल है। अतः प्राणियों को सुख और शान्ति कहाँ प्राप्त होती है? अतः जितना भी समय मिले उसका सदुपयोग धार्मिक कार्यों और प्रभु भक्ति लीन होने में लगाना चाहिए।
*अधमा धनमिच्छन्ति*
*धनं मानं च मध्यमाः।*
*उत्तमा मानमिच्छन्ति*
*मानो हि महतां धनम्।।*
अर्थात- निम्न कोटि के लोग धन चाहते हैं, मध्यम कोटि के लोग सम्मान और धन दोनों चाहते हैं, उत्तम कोटि के लोग सम्मान चाहते हैं। श्रेष्ठ लोगों का धन सम्मान ही होता है।
*विद्यार्थी सेवकः पान्थः*
*क्षुधार्थो भयकातरः।*
*भण्डारी प्रतीहारी च*
*सप्त सुप्तान् प्रबोधयेत्।।*
अर्थात- विद्यार्थी, सेवक, पथिक, भूख से पीड़ित, भय से विह्वल, भण्डारी और द्वारपाल यदि ये सात सो रहे हों तो इन्हें जगा देना चाहिए।
*दानानां च समस्तानां*
*चत्वार्येतानि भूतले।*
*श्रेष्ठानि कन्यागोभूमि-*
*विद्या दानानि सर्वदा॥*
अर्थात- सभी दानों में कन्यादान, गोदान, भूमिदान, और विद्यादान इस भूतल पर सर्वश्रेष्ठ है।
*नभोभूषा पूषा कमलवनभूषा मधुकरो*
*वचोभूषा सत्यं वरविभवभूषा वितरणम्।*
*मनोभूषा मैत्री मधुसमयभूषा मनसिजः*
*सदो भूषा सूक्तिः सकलगुणभूषा च विनयः॥*
अर्थात- सूर्य आकाश का भूषण है, भौंरा कमलवन का, सत्य वाणी का, श्रेष्ठ दान वैभव का, मैत्री मन का, कामदेव वसंत का, और सद्वचन सभा का भूषण है, पर विनय तो सब गुणों का भूषण है।
*कुलानि समुपेतानि*
*गोभि: पुरुषतोsश्वत:।*
*कुलसंख्यां न गच्छन्ति*
*यानि हीनानि वृत्तत:।।*
अर्थात- भले ही कुल में ऐश्वर्य के सभी साधन- गौएं, घोड़े तथा पुरुष पाए जाते हों परन्तु यदि वह कुल आचरण से हीन है तो उसे श्रेष्ठकुल नही कहा जा सकता।
*साधवः क्षीणदोषास्तु*
*सच्छब्द: साधुवाचक:।*
*तेषामाचरणं यत्तु*
*सदाचारस्स उच्यते।।*
अर्थात- सत् शब्द का अर्थ साधु है और साधु वही है जो दोषरहित है, दोषरहित उस साधु पुरुष का जो आचरण है उसी को सदाचार कहते हैं।
*ऋषयो दीर्घ सन्ध्यत्वाद्*
*दीर्घमायुरवाप्नुयुः।*
*प्रज्ञां यशश्च कीर्तिं च*
*ब्रह्यवर्चसमेव च।।*
अर्थात- ऋषियों ने दीर्घ काल तक सन्ध्या की, उसी के अनुसार दीर्घायु प्राप्त की, बुद्धि और यश प्राप्त किया और मरने के पश्चात् अमर कीर्ति प्राप्त की और दीर्घकालीन जप से ब्रह्मतेज भी प्राप्त किया। सांसारिक सभी एतद्विषयक आकांक्षी जनों को नित्य प्रतिदिन संध्या उपासनी चाहिए।
*धनधान्यप्रयोगेषु*
*विद्यासंग्रणेषु च।*
*आहारे व्यवहारे च*
*त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् ।।*
अर्थात- धन और धान्य का व्यापार, विद्याप्राप्ति, आहार और व्यवहार में संकोच न करने वाला सुखी रहता है।
*अग्निशेषमृणशेषं शत्रुशेषं तथैव च।*
*पुन: पुन: प्रवर्धेत तस्माच्छेषं न कारयेत्।।*
अर्थात- यदि कोई आग, ऋण या शत्रु अल्प मात्रा अथवा न्यूनतम सीमा तक भी अस्तित्व में बचा रहेगा तो बार बार बढ़ेगा ; अत: इन्हें थोड़ा सा भी बचा नही रहने देना चाहिए। इन तीनों को सम्पूर्ण रूप से समाप्त ही कर डालना चाहिए।
*पातितोऽपि कराघातै:*
*उत्पतत्येव कन्दुकः।*
*प्रायेण साधुवृत्तानाम्*
*अस्थायिन्यो विपत्तयः।।*
अर्थात- हाथ से पटकी हुई गेंद भी भूमि पर गिरने के बाद कुछ ही समय में ऊपर की ओर उठती है। इसी प्रकार सज्जनों का बुरा समय थोड़े समय के लिए ही होता है (अस्थाई विपत्ति होती है।)।
*गृहासक्तस्य नो विद्या*
*न दया मांस भोजिनः।*
*द्रव्यलुब्धस्य नो सत्यं*
*स्त्रैणस्य न पवित्रता।।*
अर्थात- जो घर गृहस्थी के काम में लगा रहता है वह कभी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, मांसभोजी के हृदय में दया नहीं हो सकती, लोभी व्यक्ति कभी सत्य भाषण नहीं कर सकता और स्त्रैण व्यक्ति में कभी शुद्धता नहीं हो सकती।
*आपत्काले तु संप्राप्ते*
*यन्मित्रं मित्रमेव तत्।*
*वृद्धिकाले तु संप्राप्ते*
*दुर्जनोSपि सुहृद्भवेत्।।*
अर्थात- आपत्तिकाल के समय में भी जो व्यक्ति हमारा मित्र बना रहता है वह सच्चा मित्र होता है। अन्यथा जिस समय धन, संपत्ति और ऐश्वर्य की वृद्धि हो रही होती है उस अच्छे समय मे तो दुष्ट और नीच व्यक्ति भी मित्र के समान व्यवहार करने लगते हैं।
*देवो रूष्टे गुरुस्त्राता,*
*गुरो: रुष्टे न कश्चन।*
*गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता,*
*गुरुस्त्राता न संशयः।।*
अर्थात- देवता के रुष्ट हो जाने पर गुरु रक्षक होते हैं किन्तु गुरु के रुष्ट हो जाने पर कोई भी रक्षक नही होता अतः गुरु को कभी रुष्ट न करें। आपके पूरे जीवन मे गुरु ही रक्षक हैं, गुरु ही रक्षक हैं, गुरु ही रक्षक हैं इसमे कोई संशय नही।
*कदर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्ते:*
*न शक्यते धैर्यगुण: प्रमार्ष्टुम्।*
*अधोमुखस्यापि कृतस्य वह्ने:*
*नाध: शिखा याति कदाचिदेव।।*
अर्थात- धीर पुरुष को यदि पीड़ा भी पहुँचाई जाए तो भी उसके धैर्यगुण का नाश नहीं किया जा सकता। जैसे जलती हुई अग्नि की लपट का मुँह नीचे भी किया जाए तो भी उसकी लपट नीचे नहीं होती, वह तो ऊपर ही उठती है।
*साधवः क्षीणदोषास्तु*
*सच्छब्द: साधुवाचक:।*
*तेषामाचरणं यत्तु*
*सदाचारस्स उच्यते।।*
अर्थात- सत् शब्द का अर्थ साधु है और साधु वही है जो दोषरहित है, दोषरहित उस साधु पुरुष का जो आचरण है उसी को सदाचार कहते हैं।
आचारो भूतिजनन:*
*आचार: कीर्तिवर्धन:।*
*आचाराद् वर्धते ह्यायु:*
*आचारो हन्त्यलक्षणम्।।*
अर्थात- सदाचार ऐश्वर्य बढ़ानेवाला, कीर्ति बढ़ाने वाला और दीर्घ आयुष्य प्रदान करने वाला होता है। सदाचार से सभी कुलक्षण नष्ट हो जाते हैं।
*प्रज्ञायुक्तशरीरस्य किं करिष्यन्ति शत्रवः।*
*छत्रोपानहयुक्तस्य वारिधारातपो यथा।।*
अर्थात- बुद्धि से सम्पन्न मनुष्य का शत्रु क्या बिगाड़ सकते हैं जैसे छाता और जूते वाले मनुष्य की वर्षा और धूप क्या हानि कर सकते हैं। अतः प्रज्ञावान बनें।
संसारतापदग्धानां*
*त्रयो विश्रान्तिहेतव:।*
*अपत्यं च कलत्रं च*
*सतां सङ्गतिरेव च।।*
अर्थात- संसार के तापों से संतप्त मनुष्यों के लिए तीन ही शांति के कारण हैं - १.सन्तान २. भार्या ३.सज्जनों की संगति।
क्षमा शस्त्रं करे यस्य*
*दुर्जनः किं करिष्यति।*
*अतृणे पतितो वह्निः*
*स्वयमेवोपशाम्यति॥*
अर्थात- जिसके हाथ में क्षमारूपी शस्त्र है उसका दुर्जन क्या बिगाड़ सकेगा? घासरहित स्थल पर गिरा हुआ अग्नि स्वयं ही शांत हो जाता है।
स्वहस्तग्रथिता माला*
*स्वहस्ताद घृष्टचन्दनम्।*
*स्वहस्तलिखितं ग्रंथम्*
*शक्रस्यापि श्रियं हरेत्।।*
अर्थात- अपने हाँथों से गूथा माला, अपने हाँथों से घिसा चन्दन, अपने हाँथों से लिखा ग्रन्थ भगवान को ही अर्पित करना चाहिए, यदि पूर्वोक्त का स्वयं उपयोग इन्द्र भी करें तो श्री का हरण होता है।
*दाने तपसि शौर्ये वा*
*विज्ञाने विनये नये।*
*विस्मयो नैव कर्तव्यो*
*बहुरत्ना वसुन्धरा।।*
अर्थात - दान, तप, वीरता, विज्ञान, विनय और नीति में अभिमान करना उचित नहीं होता। यह पृथिवी अनेक रत्नों अर्थात् गुणी जनों से भरी हुई हैं।
*
गुरुशुश्रूषया विद्या*
*पुष्कलेन धनेन वा।*
*अथवा विद्यया विद्या*
*चतुर्थो नोपलभ्यते॥*
अर्थात- विद्या गुरु की सेवा से, पर्याप्त धन देने से अथवा विद्या के आदान - प्रदान से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त विद्या प्राप्त करने का चौथा प्रकार नहीं है।
[
*आपत्काले तु संप्राप्ते*
*यन्मित्रं मित्रमेव तत्।*
*वृद्धिकाले तु संप्राप्ते*
*दुर्जनोSपि सुहृद्भवेत्।।*
अर्थात- आपत्तिकाल के समय में भी जो व्यक्ति हमारा मित्र बना रहता है वह सच्चा मित्र होता है। अन्यथा जिस समय धन, संपत्ति और ऐश्वर्य की वृद्धि हो रही होती है उस अच्छे समय मे तो दुष्ट और नीच व्यक्ति भी मित्र के समान व्यवहार करने लगते हैं।
*
विद्या वितर्को विज्ञानं*
*स्मृतिः तत्परता क्रिया।*
*यस्यैते षड्गुणास्तस्य*
*नासाध्यमतिवर्तते॥*
अर्थात- विद्या, तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मृतिशक्ति, तत्परता और कार्यशीलता ये छह जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं है।
पृथ्वी सत्पुरुषं विना न रुचिरा,*
*चन्द्रं विना शर्वरी*
*लक्ष्मीर्दानगुणं विना वनलता,*
*पुष्पं फलं वा विना।*
*आदित्येन विना दिनं सुखकरं,*
*पुत्रं विना सत्कुलम्*
*धर्मो नैव धृतः सदा श्रुतधरैः*
*शीलं विना शोभते॥*
अर्थात- जैसे पृथ्वी सत्पुरुष के बिना, रात्रि चाँद के बिना, लक्ष्मी दान के गुण बिना, वनलता फूल और फल के बिना, दिन सूर्य के बिना, सत्कुल सुख देनेवाले पुत्र के बिना शोभा नही देता, वैसे ही विद्वान लोगों द्वारा आचरण किया हुआ धर्म, शील के बिना शोभा नही देता।
*शिक्षा क्षयं गच्छति कालपर्ययात्*
*सुबद्धमूला निपतन्ति पादपाः।*
*जलं जलस्थानगतं च शुष्यति*
*हुतं च दत्तं च तथैव तिष्ठति।।*
अर्थात- समय के साथ विद्या का क्षय हो जाता है, अच्छी तरह मूल से जमा हुआ वृक्ष भी धराशाई हो जाता है। एवं जलाशय मे रहा पानी भी समय के साथ कालांतर मे सुख जाता है, परंतु यज्ञ की अग्नि मे समर्पित आहुति और हाथ से दिया गया दान कभी नष्ट नहीं होता सदैव वैसे ही शाश्वत रहता है।
*यथा गजपतिः श्रान्तः*
*छायार्थी वृक्षमाश्रितः।*
*विश्रम्य तं द्रुमं हन्ति*
*तथा नीचः स्वमाश्रयम्॥*
अर्थात- जैसे थका हुआ हाथी छाया लेने हेतु वृक्ष का आश्रय लेता है और विश्राम के बाद उसी वृक्ष का नाश करता है ठीक वैसे ही नीच मानव स्वयं को आश्रय देनेवाले का नाश करता है।
*सत्यमेकपदं ब्रह्म*
*सत्ये धर्मः प्रतिष्ठितः।*
*सत्यमेवाक्षया वेदाः*
*सत्येनावाप्यते परम्।।*
अर्थात- सत्य ही प्रणवरूप शब्दब्रह्म है, सत्य में ही धर्म प्रतिष्ठित है, सत्य ही अविनाशी वेद है और सत्य से ही परब्रह्म की प्राप्ति होती है, अतः सत्य को अपनाएँ।
*आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन्*
*को न जीवति मानवः।*
*परं परोपकारार्थं*
*यो जीवति स जीवति॥*
अर्थात- इस जीवलोक में स्वयं के लिए कौन नहीं जीता? परंतु, जो परोपकार के लिए जीता है, उसी को सच्चा जीना कहते हैं।
*नास्य कृत्यानि बुध्येरन्*
*मित्राणि रिपवस्तथा।*
*आरब्धान्येव पश्येरन्*
*सुपर्यवसितान्यपि।।*
अर्थात- मित्र और शत्रु किसी को भी यह पता न चले कि आप कब क्या करना चाहते हैं। कार्य के आरम्भ अथवा समाप्त हो जाने पर ही सब लोग उसे देखें और जानें तो श्रेयस्कर।
*दारिद्र्यनाशनं दानं*
*शीलं दुर्गतिनाशनम्।*
*अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा*
*भावना भयनाशिनी।।*
अर्थात- दान दरिद्रता का नाशक है सदाचार दुर्गति को दूर करता है, बुद्धि अज्ञान का नाश करती है और सद्भावना भय की नाशिका है।
*ज्यैष्ठत्वं जन्मना नैव*
*गुणै: ज्यैष्ठत्वमुच्यते।*
*गुणात् गुरुत्वमायाति*
*दुग्धं दधि घृतं क्रमात्।।*
अर्थात- व्यक्ति जन्म से बडा व महान नहीं होता है। बडप्पन व महानता व्यक्ति के गुणों से निर्धारित होती है, यह वैसे ही बढती है जैसे दूध से दही व दही से घी श्रेष्ठत्व को धारण करता है।